samaj bandhuon se nivedan

समाज हित में समाज के समस्त बंधुओं की सेवा में दस वर्षों से निरंतर 'चौहान चेतना' पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है लेकिन काफी पत्रिका के सदस्य व विज्ञापनदाता अपने भुलक्कड़ स्वभाव तथा लापरवाही के कारन पत्रिका शुल्क समय से नहीं भेजते, साथ ही शादी-विवाह के जो विज्ञापन प्रकाशित होते हैं, वह भी दो-दो, तीन-तीन साल तक छापते रहते हैं जिनमें से बहुतेरे लड़के-लड़कियों की शादी हो जाती है, यहाँ तक की बच्चे भी हो जाते हैं लेकिन विज्ञापन छापते रहते हैं और सम्बंधित पक्ष इसकी सूचना पत्रिका 'चौहान चेतना' को नहीं देते, जिससे लोगों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ता है। समाज-बंधुओं की इस उदासीनता व लापरवाही के कारन अब निर्णय लिया गया है की पत्रिका के छपने वाले वैवाहिक विज्ञापन में विज्ञापन प्रकाशन प्रारंभ होने की तिथि अंकित कर दी जाएगी। उक्त तिथि से वह विज्ञापन एक वर्ष तक निरंतर प्रकाशित होगा, इसके बाद यदि सम्बंधित व्यक्ति का कोई जवाब नहीं आता है तो उस विज्ञापन का प्रकाशन बंद कर दिया जाएगा। आप सभी पाठकों व विज्ञापनदाताओं को सूचित करना है कि कागज मूल्यों में बढ़ोतरी के कारन पत्रिका का वार्षिक शुल्क ६० रु व विज्ञापन का वार्षिक शुल्क ६० रु हो गया है। कृपया सूचना से अवगत हों। समाज-बंधुओं द्वारा समय से पत्रिका का चंदा न भेजने पर पत्रिका बराबर घटे पर चल रही है, अगर इसी तरह आपका असहयोग रहा तो एक दिन पत्रिका बंद भी हो सकती है। हमारे समाज में कुछ विशेष लोग हैं जो पत्रिका के महत्त्व को समझते हुए अपना सहयोग देते रहते हैं, हम उनके आभारी हैं। आपका- सुक्खनलाल चौहान, संपादक- चौहान चेतना

Friday, March 18, 2011

वर्तमान की ज्वलंत समस्या
हर माता-पिता चाहे वह अमीर हो या गरीब उनकी एक ही तमन्ना होती है की उसकी संतानें पढ़-लिखकर उन्नति के शिखर पर सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त करें। इसके लिए वे हर प्रकार का त्याग करते हैं। अपने जीवन भर की गाढ़ी कमाई को अपने बच्चों के पालन-पोषण और पढाई-लिखी में खर्च कर देते हैं। किन्तु बच्चे पढ़ लिखकर कैरियर में अच्छा मुकाम हासिल कर लेते हैं तो वे अपने उन्हीं माता-पिता की उपेक्षा करने लगते हैं।
जिन्होंने उनकी उन्नति के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया है। भौतिकवादी संस्कृति के वशीभूत होकर शिक्षित व समर्थ नवयुवक-नवयुवतियों अपने बच्चों के साथ एकल परिवार के रूप में रहना अपनी शान समझते हैं। शायद वे इस सत्य से अनभिग्य हैं की उन्हें भी एक दिन बूढा होना है। वर्तमान की इस ज्वलंत समस्या के चलते असंख्य बूढ़े माता-पिता या तो घर के एक कोने में उपेक्षित पड़े रहते हैं अथवा वृद्धाश्रमों में जाकर शेष दिन काटने के लिए मजबूर हैं। आने वाले समय में यह समस्या विकराल रूप ले इसके पहले समय रहते हम सबको मिलकर वैचारिक क्रांति छेड़नी होगी।
_बी डी सिंह सोलंकी

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